27 सित॰ 2011

मुनियाँ का मन

कुछ अक्षर,कुछ शब्द या वो भी नहीं,
फिर भी जाना चाहती है,मुनिया स्कूल।
पर जाना होता है उसे चौबे आंटी के घर,
झाडू लगाने, बर्तन-भाड़े साफ़ करने,
और ना जाने क्या-क्या काम करने,
टूट जाता है जब कभी शीशे का कप या ग्लास,
तब- तब काप उठती है मुनिया,
वैसे तो खुश है मुनिया, क्योंकि चौबे आंटी से,
मिलती है बासी रोटियां।
डाली की परसाल की फ्राक और कुछ रूपये
जिनसे आती है-माँ की दवाई और बाप की दारू।
मुकेश भार्गव, लखनऊ.








































26 सित॰ 2011

पिंटू का स्कूल

पिंटू जाना चाहता है हर रोज, स्कूल।
पर घुघंरू,घंटी का काम और ,
स्कूल का समय तो एक ही होता है,
पिघले पीतल को जब वह रूप देता है,
घुँघरू या घंटी का ,स्कूल का घंटा,
तब ही बजता है,टनन-टनन।
एक क्षण रूकता है,वह और,
देखता है,घडी की ओर,
लग जाता है अपने काम पर
भट्टी के बिस्फोट में,पहले ही चली गईं,
पिता की अंगुलियाँ,के एवजी,
जाना होता है उसे काम पर।
तब कहीं चलती है,जिन्दगी की गाड़ी,
समस्या माँ की दवाई की भी है,
आखिर कब,कैसे जाये,पिंटू स्कूल?
क्या बदल पायेगा स्कूल,
अपनी परिपाटी,पिंटू के लिए?
मुकेश भार्गव.