27 सित॰ 2011

मुनियाँ का मन

कुछ अक्षर,कुछ शब्द या वो भी नहीं,
फिर भी जाना चाहती है,मुनिया स्कूल।
पर जाना होता है उसे चौबे आंटी के घर,
झाडू लगाने, बर्तन-भाड़े साफ़ करने,
और ना जाने क्या-क्या काम करने,
टूट जाता है जब कभी शीशे का कप या ग्लास,
तब- तब काप उठती है मुनिया,
वैसे तो खुश है मुनिया, क्योंकि चौबे आंटी से,
मिलती है बासी रोटियां।
डाली की परसाल की फ्राक और कुछ रूपये
जिनसे आती है-माँ की दवाई और बाप की दारू।
मुकेश भार्गव, लखनऊ.








































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